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र्जीवन का वर्णन किया जाय, तब तो विप्रलंभ को, अन्यथा करुण-रस को, पुष्ट करता है। कवि लोग इस भाव का प्रधानतया वर्णन नहीं करते, क्योंकि यह भाव प्राय: अमंगल है।

२४-वितर्क

संदेह भादि के अनन्तर उत्पन्न होनेवाली तर्कना को 'वितर्क' कहते हैं। वह निश्चय के अनुकूल (उत्पादक) होता है। जैसे-

यदि सा मिथिलेन्द्रनन्दिनी नितरामेव न विद्यते भुवि।
अथ मे कथमस्ति जीवितं न विनाऽऽलम्बनमाश्रितस्थितिः
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"जनक-सुता महि पर नहीं" यह बच जो आदेय।
तौ किमि मम थिति? रहत ना बिन अधार आधेय॥

यदि जनकनंदिनी पृथिवी पर सर्वथा है ही नहीं, तब फिर मेरा जीवन किस प्रकार विद्यमान है; क्योंकि बिना आधार के आधेय (आधार मे रहनेवाली वस्तु) की स्थिति नहीं रहती। तात्पर्य यह कि जनकनंदिनी ही इस जीवन का आधार है, उसके चले जाने पर यह रह ही कैसे सकता है? यह भगवान रामचंद्र का अपने मन में कथन है।

यहाँ "सीता पृथिवी पर है अथवा नही" यह संदेह विभाव है और पद्य मे वर्णित न होने पर भी आक्षिप्त भौंह तथा अँगुलियों का नचाना अनुभाव है। "इस पद्य का व्यंग्य चिता है" यह नही कहा जा सकता, क्योंकि चिंता किसी