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२२-उन्माद

वियोग, परम आनंद और महा-आपत्ति से उत्पन्न होनेवाली, जो किसी मनुष्य अथवा वस्तु में किसी दूसरे मनुष्य अथवा वस्तु की प्रतीति होती है, उसे 'उन्माद' कहते हैं। यहाँ 'उत्पन्न होनेवाली' तक का जो कथन है, वह सीप मे चाँदी के भानरूपी भ्रम मे इस लक्षण की प्रतिव्याप्ति न होने के लिये है क्योंकि वहाँ नेत्र दोष और अन्धकार आदि कारण है न कि वियोग आदि। उदाहरण लीजिए-

"अकरुणहृदय प्रियतम! मुञ्चामि त्वामितः परं नाऽहम्॥
इत्यालपति कराम्बुजमादायाऽलीजनस्य विकला सा॥
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"अकरुन-हिय पिय! तोहिं हौं ना छोरौं अब पाइ।"
यों बोलत गहि कर-कमल आलिन को अकुलाइ॥

वह सखी के हाथ को पकड़कर "हे निर्दय हृदयवाले प्रियतम! मैं (जो छोड़ चुकी से छोड़ चुकी) अब इसके वाद तुम्हे छोड़ती ही नहीं।" इस तरह विकल होकर बातें करती रहती है। यह प्रवास मे गए हुए और अपनी प्रियतमा के समाचार पूछते हुए नायक के प्रति किसी, संदेशवाहिनी-दूती-की उक्ति है।

यहाँ प्यारे का विरह विभाव है और असंबद्ध-बेमेल-बातें करना अनुभाव है। उन्माद का यद्यपि व्याधि-भाव मे अंत-