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अवाप्य भङ्गं खलु सङ्गराङ्गणे नितान्तमङ्गाधिपतेरमङ्गलम्।
परप्रभावं मम गाण्डिवं धनुर्विनिन्दतस्ते हृदयं न कम्पते॥
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रन-आँगन लहि करन ते अशुभ पराजय आज।
निंदत मम गांडिव धनुष तुव हिय कंप न लाज॥

रणांगण मे अंगराज कर्ण से अत्यंत अमंगल हार खाकर तू आज मेरे परम प्रभावशाली गांडीव धनुष की निंदा कर रहा है। तेरा हृदय कंपित नहीं होता!! यह कर्ण से पराजित और गांडीव की निदा करते हुए युधिष्ठिर के प्रति अर्जुन की उक्ति है।

यहाँ युधिष्ठिर की की हुई गांडीव धनुष की निंदा विभाव है और मारने की इच्छा अनुभाव।

यहाँ यह भी समझ लेना चाहिए कि-'अमर्ष और उग्रता में कुछ भेद नहीं है' यह कह देना उचित नहीं; क्योंकि पहले जो अमर्ष की ध्वनि का उदाहरण दिया गया है, उसमें उग्रता नहीं है, सो आप दोनों उदाहरणों को मिलाकर स्पष्ट समझ सकते हैं। तात्पर्य यह कि अमर्ष निर्दयतारूप नहीं और यह तद्रूप होती है। न इसे क्रोध ही कह सकते हैं; क्योंकि वह स्थायी-भाव है और यह संचारी भाव। अर्थात् यही भाव जव स्थायीरूप से आवे तो क्रोध समझना चाहिए और संचारीरूप से आवे तो उग्रता।