"अकरुण! मृषाभाषासिन्धो! विमुश्च ममाञ्चलम्,
तव परिचितः स्नेहः सम्यक ममे"त्यभिभाषिणीम्॥
अविरलगलद्वाष्पां तन्वी निरस्तविभूषणां
क इह भवतीं भद्रे! निद्रे! विना विनिवेदयेत्॥
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"हे झूँठन सिरमार! निर्दयी! तजु मम अंचल,
तेरो जान्यो नेह भलैं मैं" यों कहती कल॥
अविरल आसुन धार भरति कृशतन गतभूपन।
प्यारिहिँ तो विन नीँद! करै को देवि! निवेदन॥
"हे दयाहीन! हे मिथ्या-भाषणों के समुद्र! मैंने तुम्हारे प्रेम को अच्छी तरह पहचान लिया। तुम मेरा पल्ला छोड़ दो।" इस तरह कहती हुई और अविरल अश्रुधारा बहाती हुई भूषणरहित कांगी को, हे कल्याणकारिणी निद्रे! तेरे विना कौन मिला सकता है। देवि। इस तरह मिला देने का सौभाग्य केवल तुझे ही प्राप्त है। यह स्वप्न में भी इस तरह कहती हुई प्रियतमा को देखनेवाले किसी विदेशगत नायक की उक्ति है।
यद्यपि यहाँ "हे निद्रे! तैंने प्यारी की इस तरह की अवस्था का निवेदन करके मेरा महान् उपकार किया है" यह बात और विप्रलंभ-शृंगार दोनों प्रतीति मे आ जाते हैं, तथापि प्रथम स्वप्न की ही स्फूर्ति होती है, अतः इस पथ मे स्वप्न के ध्वनित होने का उदाहरण दिया गया है; परंतु यदि इसी पद्य से अंत