पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/३५२

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मा कुरु कशां कराब्जे करुणावति! कम्पते मम खान्तम्।
खेलन्न जातु गोपैरम्ब! विलम्ब करिष्यामि॥
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करु न कोररा कर, कँपत हिय, करुनावति अम्ब!
गोपन सँग खेलत कबहुँ करिहैं। अब न विलंब॥

अरी दयावती! तू अपने कर-कमल में कोरड़ा न ले, मेरा हृदय धड़क रहा है। मैया! गोपालों के साथ खेलते हुए अब कभी विलंब न करूँगा। यह लीला से गोपकिशोर बने हुए भगवान् श्रीकृष्णचंद्र की उक्ति है।

१७-सुप्त

निद्रारूपी विभाव से उत्पन्न हुए ज्ञान का नाम 'सुप्त' है जिसे आप 'स्वम' कह सकते है। इसके अनुभाव हैं बड़बडाना-आदि। नेत्र मौचना-आदि तो निद्रा के ही अनुभाव हैं, इसके नहीं; क्योंकि वे स्वप्न के कारण नहीं होते और जो प्राचीन प्राचार्यों ने "प्रस्याऽनुभावा निमृतगात्रनेत्रनिमीलनम् (अर्थात् इसके अनुभाव शरीर की निश्चेष्टता और नेत्र-मीचना हैं)" इत्यादि लिखा है, सो वे अनुभाव यद्यपि निद्रा के कारण अन्यथा सिद्ध हैं अर्थात् वे केवल स्वप्न मे ही नहीं रहते, कितु बिना स्वप्न के केवल निद्रा मे भी रहते हैं; तथापि इस भाव मे भी वे व्यापक रूप से रहते हैं-यह भाव भी उनसे खाली नहीं हैइस कारण लिख दिए. गए हैं। सो यह आप भी सोच सकते हैं। उदाहरण लीजिए