पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/३४

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नही तो, एकाध थप्पड़ का पुरस्कार तो अवश्य ही प्राप्त हो जाता।

अब अभिमान की बात सुनिए। आप कहते हैं—

आमूलाद्रत्नसानोर्मलयवलयितादा च कूलात्पयोधे–
र्यावन्तः सन्ति काव्यप्रणयनपटवस्ते विशङ्कं वदन्तु।
मृद्वीकामध्यनिर्यन्मसृणरसझरीमाधुरीभाग्यभाजां
वाचामाचार्यताया पदमनुभवितुं कोऽस्ति धन्यो मदन्यः॥

सुमेरु पर्वत की तरहटी से लेकर मलयाचल से घिरे हुए समुद्रतट तक, जितने भी कविता करने में निपुण पुरुष हैं, वे निर्भय होकर कहें कि दाखों के अंदर से निकलनेवाली चिकनी रसधारा की मधुरता का भग्य जिन्हें प्राप्त है—अर्थात् जिनकी कविता उसके समान मधुर है, उन वाणियों के आचार्य पद का अनुभव करने के लिये मेरे अतिरिक्त कौन पुरुष धन्य हो सकता है। इस विषय में तो मैं एक ही धन्य हूँ, दूसरे किसी की क्या मजाल है कि वह इस पद को प्राप्त कर सके।

देखिए तो आचार्यजी महाराज कितने अभिमत्त हो गए हैं। आपने किसी दूसरे के धन्यवाद की भी तो अपेक्षा नहीं रखी, उस रस्म को भी अपने आप ही पूरा कर लिया; क्योंकि शायद किसी अन्य को यह धन्यवाद देने का सौभाग्य प्राप्त हो जाता तो आचार्यजी को कृतज्ञता दिखाने के लिये उसके सामने थोड़ी देर तो आँखें नीची करनी पड़ती ही।

अच्छा, अब दोषोद्घाटन की तरफ भी दृष्टि दीजिए। अप्पय दीक्षितादि को तो छोड़िए, क्योंकि उनके दोषोद्धाटन