अर्थात् चित्त की उत्सुकता, मन का ताप और दरिद्रता इन विभावों से और सिर हिलाना, शरीर का भारीपन और देह के सजाने का त्याग इन अनुभावों से 'दैन्य-भाव' को पहिचान लेना चाहिए। और यह कि-
दौर्गत्यादेरनाजस्यं दैन्य मलिनतादिकृत्।
अर्थात् दरिद्रता आदि के कारण जो ओजस्विता का प्रभाव हो जाता है, उसे 'दैन्य' कहते हैं। वह मलिनवा प्रादि को उत्पन्न करता है।
यहाँ मैंने उसे निकाल दिया है-'न कि विधाता ने इस बात की पुष्टि 'पतित' की उपमा से ही होती है, शूद्रादिक की उपमा से नहीं; क्योंकि शूद्रादिक के लिये तो विधाता ने, खभावतः ही, श्रुति दुर्लभ कर दो है, उनको उसके पढ़ने का अधिकार ही नहीं प्राप्त है। पर, ब्राह्मणादिक जो पतित हो जाते हैं, उनको स्वभावतः तो श्रुति सुलभ थी, किंतु उन्होंने वैसा पाप करके, अपने-आप, श्रुति को दूर कर दिया है। इस कारण, अपनी (श्रीराम की) पतित से समानता और श्री सीता की श्रुति से समानता, यह जो उपमालंकार है, वह दैन्य-भाव को अलंकृत करता है। सो वह भी दैन्य-भाव का पोषक है।
यहाँ 'मैंने' और 'उसे' इन दोनों पदों मे उपादानलक्षणा है, जिसके कारण 'मैंने' का 'जिसे उसने अत्यन्त क्लेश मे भी न छोड़ा, उस मैंने यह, और 'उसे' का 'वन-वास की सह