पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/३३२

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से पुकारी जानेवाली चिन्ता है। अर्थात् जिस चिन्ता में कुछ नहीं सूझता, उसे मोह कहा जाता है। अतएव नवीन विद्वानो का मत है कि यह भी चिन्ता ही है, केवल अवस्था का भेद है। अर्थान् चिन्ता ही जब इस दशा को पहुंच जाती है कि सूझना-समझना वन्द हो जाय, वो उसे मोह कहते हैं; इस कारण इसे चिन्ता से पृथक नहीं गिनना चाहिए। उदाहरण लीजिए-

विरहेण विकलहृदया विलपन्ती दयित दयितेति।
आगतमपि तं सविधे परिचयहीनेव वीक्षते वाला॥

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विरह-महानल विकल हिय पिय-पिय कहि बिललात।
निकटहु आए अपरिचित-लौ तेहिं दयित दिखात॥

एक सखी दूसरी सखी से कहती है कि उस (नायिका) का हृदय विरह के मारे विकल हो गया है और 'प्यारे प्यारे पुकारती हुई वह, पास मे आए हुए भी प्रिय को, इस तरह देख रही है कि मानो उसे जानती ही न हो।

यहाँ पति का वियोग विभाव है तथा इन्द्रियों की विकलता और लज्जादिक का अभाव अनुभाव हैं। अथवा,

जैसेशुण्डादण्डं कुण्डलीकृत्य कूले
कल्लोलिन्याः किञ्चिदाकुञ्चिताक्षः।