पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/३३१

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निरुद्धय यान्तीं तरसा कपोती कूजलपातस्य पुरो ददाने।
मयि स्मिता वदनारविन्दं सा मन्दमन्दं नमयाम्बभूव॥

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धरत मोहि, कूजत कपोत-डिंग, रोकि कपोतिहि।
देखि, कछुक मुसक्याइ, मुखाम्बुज नाइ लियो तिहि॥

नायक अपने मित्र से कहता है कि मैने जाती हुई कबूतरी को, जबरन्. रोका और ( कामातुरता के कारण ) कूजते हुए कबूतर के सामने धर दिया; यह देखकर उस (नायिका) ने, मन्द हास से भीने, मुख-कमल को धीरे धीरे नीचा कर लिया।

पहले उदाहरण मे जैसे कुछ त्रास की अभिव्यक्ति होती है, उसी प्रकार यहाँ भी किचिन्मात्र हर्ष अभिव्यक्त होता है; पर वह लज्जा के अनुकूल ही है-उससे उसकी पुष्टि ही होती है। प्यारे का कबूतर के आगे कबूतरी धरना विभाव है और मुँह नीचा करना अनुभाव ।

४-मोह

भय-वियोग आदि से जो एक ऐसी चित्तवृत्ति उत्पन्न होती है कि जिसके कारण वस्तु की यथार्थता को पहचानना असंभव हो जाता हैमनुष्य आदि के सामने खड़े रहने पर भी वह अमुक है-यह नहीं पहचाना जा सकता-उसका नाम 'मोह' है, जो कि अन्तःकरणशून्यता के नाम