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कुच-कलशयुगान्तामकीनं नखाई
सपुलकतनु मन्दं मन्दमालोकमाना।
विनिहितवदनं मां वीक्ष्य वाला गवाक्षे
चकितनतनताङ्गी सम सद्यो विवेश॥
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कुच-कलशन जुग बीच भयो जो मेरो नख-छत।
पुलक सहित तन, मंद मंद तेहि रही विलोकत॥
ताहि समय मुहिं देखि गोख मे दीन्हे आनन।
चकित,नमाइ सरीर, सदन महं प्रविशी तत-छन॥

नायक अपने मित्र से कहता है कि-कलशों के समान दोनों कुचों के मध्य मे जो मेरे नख का क्षत हो गया थानख उमड़ आया था-उसे वह (नायिका) पुलकितांगी होकर धीरे-धीरे देख रही थी; पर, ज्योंही, उसने झरोखे में मुख डाले हुए मुझे देखा, त्योंही चकित हो गई और शरीर बिलकुल संकुचित करके सिमिटकर तत्काल घर मे जा घुसी।

यहाँ नायिका को प्रियतम का दिखाई देना, और उसके कुचों के भीतर प्रियतम के नख-क्षत के देखने से उत्पन्न हुए हर्ष की सूचना देनेवाले रोमांच आदि का प्रियतम को दीख जाना विभाव है वथा तत्काल घर मे घुस जाना अनुभाव है। अथवा, जैसे-