'तत्' पद का वाच्य असाधारण रूपवाला (खास) पदार्थ ही है, बुद्धि तो शक्यतावच्छेदक का अनुगमन करानेवाली है, अतः वाच्यता बुद्धि का स्पर्श नहीं कर सकती अर्थात् बुद्धि वाच्य (शक्य) नहीं हो सकती। दूसरे मत मे भी 'बुद्धिस्थ' पदार्थ तत्पद का वाच्य है, अतः बुद्धि-साधारण ज्ञान के तत्पद से प्रतिपादित हो जाने पर भी स्मृति के रूप में तो उसका बोध व्यंजना के द्वारा ही होता है। सो इस शंका को भी अवकाश नहीं।
यद्यपि यहाँ स्मृति पूरे वाक्य से ध्वनित होती है, तथापि 'तत्' यह एक पद ही उसका स्वरूप खड़ा करता है, इस कारण यहाँ यह भाव पद के ही द्वारा ध्वनित होता है यह समझना चाहिए। इससे, लोगों का जो यह कथन है कि-भाव यदि 'पद' के द्वारा अभिव्यक्त हो, तो उनमे कुछ विचित्रता नहीं रहती, सो उड़ जाता है।
यहाँ आँखों को जो साँझ के कमलों की उपमा दी गई है, उससे यह ध्वनित होता है कि आँखें आगे-से-आगे अधिक मिचती जा रही हैं, जिससे नायिका की आनंद-ममता प्रकट होती है।
दरानमत्कन्धरवन्धमोषनिमीलितस्निग्धविलोचनाब्जम्।
अनल्पनिःश्वासभरालसाङ्गं स्मरामि सङ्गं चिरमङ्गनायाः॥
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कछु नत ग्रीवा, अघमिंचे नेही नैन, सु-अग।
अति साँसन ते शिथिल जहँ सो सुमिरौं तिय-संग।