पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/३१९

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अन्ततो गत्वा, रस की अभिव्यक्ति होती है, तथापि उसके चमरकारी न होने के कारण उसे 'रस-ध्वनि नहीं कहा जा सकता सो यह भी नहीं कह सकते, क्योंकि चमत्कार-रहित रस की अभिव्यक्ति मे कोई प्रमाण नही-रस चमत्कार-रहित होता ही नहीं। हम पहले ही कह चुके हैं कि जिस प्रमाण से रसपदार्थ का अनुभव होता है, उसी के द्वारा यह भी सिद्ध है कि 'रस आनन्द के अंश से रहित होता ही नहीं। अब यदि आप कहें कि-रस की अपेक्षा भाव के गौण होने पर भी वाच्य की अपेक्षा प्रधान होने के कारण, अथवा विवाह मे दूलह बने हुए दीवान वगैरह के पीछे चलते हुए राजा की तरह (क्योंकि वहाँ राजा की अपेक्षा दूलह की प्रधानता रहती है ) रस की अपेक्षा भाव की प्रधानता होने के कारण काव्य को 'भाव-ध्वनि' कहा जा सकता है तो हम प्रधानतया ध्वनित होनेवाले भाव को भी अंततो गत्वा रस का अभिव्यंजक मान लेते हैं; पर, तथापि देश, काल, अवस्था और स्थिति-आदि अनेक पदार्थों से बने हुए पद्य के वाक्यार्थ मे अतिव्याप्ति हो जायगी; क्योंकि वह विभाव और अनुभाव से भिन्न भी है और रस का व्यंजक भी है। सो यह लक्षण गड़बड़ ही है।

अब यदि आप यह लक्षण बनावें कि-'जो आस्वादन रस को अभिव्यक्त करता है, उस आस्वादन मे आनेवाली (आस्वाद विषय) चित्तवृत्ति का नाम 'भाव' है और साथ मे यह कहें कि-इस लक्षण की भावों के आस्वादन मे अतिव्याप्ति न होनेA