पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/३१३

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आ जाते हो, तो भी कहना चाहिए कि उसकी असावधानता है, जो उसने उन्हे आ जाने दिया। और यदि विप्रलंभ-शृंगार के काव्य मे आ गए, तब वो विशेष रूप से असावधानता समझी जायगी।

परंतु जो अनुप्रासादिक क्लिष्ट तथा विस्तृत न होने के कारण पृथक अनुसंधान की आवश्यकता नहीं रखते, कितु रसों के प्रास्वादन मे ही अत्यंत सुखपूर्वक प्रास्वादन कर लिए जा सकते हैं, उन्हें छोड़ देना भी उचित नहीं। जैसे कि-

कस्तूरिकातिलकमालि! विधाय सायं
स्मेरानना सपदि शीलय सौधमौलिम्।
प्रौढ़िं भजन्तु कुमुदानि मुदामुदारा
मुल्लासयंतु परितो हरितो मुखानि॥

  • ***

करि कस्तूरी-तिलक सखी री! साँझ-समै तू।
मंद मंद मुसकात महल की छात रमै तू॥
तो यह निहचै जानु कुमुद मुद महा लहेगे।
सुखमा सुखद समग्र दिशा-मुख हुलसि गहेगे॥

सखी नायिका से कहती है-हे सखी! तू साँझ के समय कस्तूरी का तिलक लगाकर, तत्काल, महल की छत का