सुधा-मधुर निरमल बानी ते जो तुम शिक्षा दीन्ही नाथ।
तेहिँ सपनेहू छुवत न निरलज हौ, परि अहङ्कार के हाथ॥
इहि विधि शत-शत दोष-युक्त म्वहिँ पुनि पुनि देत निजन में स्थान।
तुम-सम करुनानिधि ना यदुपति, मो-सम मदमातो ना आन॥
हे नाथ! आपने अमृत के समान मधुर और निर्मल वाणी से, जो शिक्षा दी, उसे अहङ्कार से आच्छादित निर्लज्ज मैं, सपने मे भी, नहीं छूता। हे यदुपते! इस तरह सैकड़ों अपराधों से युक्त मुझे, फिर भी आत्मीयों मे भरती करनेवाले आपसे अधिक कोई दयानिधि नहीं है, और मुझसे अधिक मदमत्त नहीं।
यहाँ केवल प्रसाद-गुण है, उसके साथ अन्य किसी गुण का मिश्रण नहीं।
रचना के दोष
अब जिस रचना मे पूर्वोक्त गुणों को ध्वनित करने की शक्ति रहती है, उसके परिचय के लिये, साधारणतया अर्थात् जिनको सव काग्यो मे छोड़ना चाहिए और विशेषतया अर्थात् जिनको किसी रस मे छोड़ना चाहिए और किसी मे नहीं, वर्जनीयो का कुछ वर्णन किया जाता है-
साधारण दोष
एक अक्षर का साथ ही साथ फिर से प्रयोग. यदि एक पद में और एक बार हो, तो सुनने में कुछ अनुचित प्रतीत