ध्वनित करनेवाले होते है*[१]। अच्छा, अब माधुर्य का उदाहरण सुनिए-
तान्तमाल-तरु-कान्तिलङ्घिनी किङ्करीकृतनवाम्बुदत्विषम्।
स्वान्त! मे कलय शान्तये चिरं नैचिकी-नयन-चुम्बितां श्रियम्॥
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जो किङ्कर किय नव-अम्बुद-दुति, उघिय जो तमाल-तरु-कान्ति।
धेनु-नैन-चुम्बित तेहि शोभहिं मम मन, सुमिर चहसि जो शान्ति॥
एक भक्त अपने हृदय से कहता है-हे मेरे हृदय, तू, शान्ति प्राप्त करने के लिये, जिसने तमाल-वृक्ष की कांति का उल्लंघन किया है-उस बेचारी को पैरों के नीचे होकर निकाल दिया है, और जिसने नवीन मेघों की कांति को अपना आज्ञाकारी चाकर बना लिया है, उस, उत्तमोत्तम गायों के नेत्रों से चुंबन की हुई-उनके द्वारा इकटक देखी गई (भगवान श्रीकृष्णचंद्र की) शोभा को स्वीकार कर-सदा उसे ही स्मरण करता रह।
अथवा; जैसे-
स्वेदाम्बुसान्द्रकणशालिकपोलपालि-
रन्तःस्मितालसविलोकनवन्दनीया।
आनन्दमंकुरयति स्मरणेन कापि
रम्या दशा मनसि मे मदिरेक्षणायाः॥
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र॰-१२
- ↑ * पर उन लोगों का ध्यान द्वितीय और चतुर्थ वर्षों के अनुप्रासों की तरफ नहीं गया, ऐसा प्रतीत होता है।-अनुवादक।