अतः वे भी गवार्थ हैं। फिर केवल 'अर्थ-व्यक्ति' रह जाती है, सो प्रसाद-गुण के मान लेने पर उसकी कोई आवश्यकता ही नहीं रहती।
यह तो हुई शब्द-गुणों की बात, अब अर्थ-गुणों को लीजिए। उनमे से श्लेष और ओज-गुण के पहले चार भेद तो केवल विचित्रता मात्र हैं, उन्हे गुणो मे गिनना उचित नही, अन्यथा प्रत्येक श्लोक मे जो अर्थों की विलक्षण विलक्षण विचित्रताऍ रहती हैं, वे सब भी गुणों के अंतर्गत होने लगेगी, और आप उन्हे गिनते गिनते पागल हो जायेंगे। अच्छा, अब आगे चलिए; अधिक पद न होने का नाम 'प्रसाद' है, उक्ति की विचित्रता का नाम 'माधुर्य', कठोरता न होने का नाम 'सुकुमारता', ग्राम्यता न होने का नाम 'उदारता और विषमता न होने का नाम 'समता है, एवं पदों का साभिप्राय होना ओज-गुण का पाँचवॉ भेद है। ये सब क्रमशः अधिकपदत्व, अनवीकृतत्व, अमंगलरूप अश्लीलवा, ग्राम्यता, भग्नप्रक्रमवा और अपुष्टार्थतारूपी दोषों के हटा देने से गतार्थ हो जाते हैं। अर्थात् ये दोषों के अभावमात्र हैं, गुण नहीं । अव जो स्वभाव के स्पष्ट वर्णन करने का नाम अर्थव्यक्ति उसकी खभावोक्ति अलंकार और रस के स्पष्टतया प्रतीत होने का नाम कांति है, उसकी रसध्वनि तथा रसवान अलंकारों के खोकार कर लेने से, कोई आवश्यकता नही रहती। अब केवल समाधिगुण बच रहता है, वह कवि के अंतःकरण मे रहनेवाली