पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/२८४

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अच्छा, अब एक वाक्य के अर्थ के लिये अनेक वाक्यो का वर्णन भी सुनिए-

अयाचितः सुखं दत्ते याचितश्च न यच्छति।
सर्वस्वं चापि हरते विधिरुच्छसलो नृणाम्॥

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बिन माँगे सुख देत अरु माँगे कछु हु न देत।
उच्छृंखल विधि नरन को सरबस हू हरि लेत॥

कोई बेचारा भाग्य का मारा उसे कोसता है। कहता है-उच्छृंखल विधाता विना माँगे सुख देता है और मॉगने पर नहीं देता, प्रत्युत उनका सर्वस्व भी लूट लेता है।

यहाँ 'सब कुछ भाग्य के अधीन है' इस एक वाक्य के अर्थ में अनेक वाक्यों की रचना की गई है, अतः यह विस्तार है, जिसे कि प्राचीन आचार्य 'व्यास' नाम से पुकारते हैं।

तपस्यतो सुनेर्वक्त्रावेदार्थमधिगत्य सः।
वासुदेवनिविष्टात्मा विवेश परमं पदम्॥

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तप करते मुनि-वदन ते वेद-प्ररथ वह पाइ।
वासुदेव मे मेलि मन गह्मो परम पद जाइ॥

कोई मनुष्य किसी भक्त के विषय मे कहता है कि-वह तपस्या करते हुए मुनि के मुख से वेद का अर्थ प्राप्त करके वासुदेव मे चित्त लगाकर मोक्ष को प्राप्त हो गया।