एक प्रकार की गाँठ, जो गले-आदि मे हो जाया करती है) की तरह व्यर्थ हैक्योंकि पूर्वोक्त हिसाब से अन्ततो गत्वा एकएक कार्य का एक-एक रस को पृथक-पृथक कारण मानना ही पड़ेगा। सो इस तरह प्रत्येक रस को माधुर्य-आदि का पृथकपृथक कारण मानने में ही लाघव है। दूसरे, एक यह भी बात है कि आत्मा निर्गुण है और रस है आत्मरूप; अत: माधुर्यादिक को रस का गुण मानना वन भी नहीं सकता। पर यदि कहो कि रस के न सही, इनको उसके उपाधिरूप रति-पादि स्थायी भावों के ही गुण मान लीजिए; सो उनके गुण मानना भी नहीं बन सकता; क्योंकि प्रथम तो इसमे कुछ प्रमाण नही, और दूसरे काव्यप्रकाश-कार आदि की रीति से रति-आदि सुखरूप हैं, अत: वे स्वयं ही गुण हैं, सो उनमें अन्य गुणों का मानना अनुचित भी है।
अब यह शङ्का हो सकती है कि "शृङ्गार-रम मधुर होता है। इत्यादि व्यवहार, जो सब विद्वानों में प्रचलित है, कैसे वन सकता है? क्योंकि आपके हिसाब से तो माधुर्य-आदि गुण हैं ही नहीं। उसका समाधान यह है कि-दृति आदि चित्तवृत्तियों की प्रयोजकता (उन्हें पैदा करनेवाला होना), जो रसों में रहती है, उसे ही माधुर्य-आदि समझिए; और उसी के रहने से रसों को मधुर-आदि कहा जाता है। अथवा, यों कहिए कि-दुति-आदि चित्तवृत्तियों ही जब (किसी रस आदि के साथ) उमारने का (प्रयोजकता) संबंध रखती हैं,