अस्तु। इस तरह इस सब कथन का तात्पर्य यह होता है कि मध्य में उदासीन रस का आस्वादन होने से रुकावट डालनेवाले ज्ञान की निवृत्ति हो जाती है, और इस कारण जिसको रोक दिया जा सकता था, उस रस का प्रास्वादन निर्विघ्नता से हो जाता है उसके आखादन मे किसी प्रकार की रुकावट नहीं रहती।
अब अन्य प्रकार से विरोध दूर करने की युक्ति करते हैं:-
एक रस दूसरे रस-भाव आदि का अंग हो गया हो, अथवा दोनों रस किसी अन्य रस-भाव आदि के अंग हो गए हाँ, तो उनमे विरोध नहीं रहता; क्योंकि यदि वे विरुद्ध रहें तो अंग ही नहीं बन सकते। जैसे कि-
प्रत्युद्गता सविनयं सहसा सखीभिः
स्मेरैः स्मरस्य सचिवैः सरसावलोकैः।
मामद्य मंजुरचनैर्वचनैश्च बाले!
हा! लेशतोऽपि न कथं वद सत्करोषि॥
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स्मर के सचिव समान सरस चितवन सुखकारी
अरु अति-मंजुल-रचन वचन गन सों हा प्यारी!
विनय सहित झट सखिन संग लै समुहै आई
करति क्यो न मम आन कछु हु आदर हरषाई।
हाय! बाले! तुम, सखियों सहित विनयपूर्वक झट से सामने आकर, कामदेव की कामदार-उसकी सिफारिश करने