निर्दिश्यमानाँल्ललनाङ्गुलीभि-
वोराः वदेहान् पतितानपश्यन्॥
रणांगण का वर्णन है। कवि कहता है-उस समय पृथिवी की रज से भरे हुए, शृगालियों से पूर्णतया आलिंगन किए हुए, मांसाहारी पक्षियों के चमचमाते हुए रुधिर-लिप्त पंखों से झले जा रहे, रणांगण में गिरे हुए और ललनाओं की अँगुलियों से दिखाए जाते हुए अपने देहों को, जिनके वक्षःस्थल नवीन पारिजात पुष्पो की मालाओं से सुगन्धित हो रहे हैं और देवांगनाओं से आलिंगित हैं, एवं जिनको, कल्पवल्लियों से प्राप्त प्रतएव चंदन के जल से छिड़के जाने के कारण सुगंधित दुशाल (के बने हुए पंखों) से झला जा रहा है ऐसे विमानों के पलँगों पर बैठे हुए (युद्ध मे लड़कर स्वर्ग गए हुए) वीरों ने कौतुकयुक्त होकर देखा।
इत्यादि काव्य-प्रकाश के पद्य-समूह में वो पहले बीभत्सरस की सामग्री का श्रवण होने के कारण उसका आखादन होता है और उसके अनंतर, बीभत्स-रस की सामग्री से 'निर्भय होकर प्राण त्याग देने आदि' वीर-रस की सामग्री का आक्षेप होता है, सो उसके द्वारा जब वीर-रस का आस्वादन हो चुकता है, तब शृंगार-रस का आस्वादन होता हैयह भेद है। अर्थात् हमारे पद्य मे क्रमशः शृंगार, वीर और बीभत्स का आस्वादन होता है और काव्य-प्रकाश के पद्यों में बीभत्स, वीर और शृंगार का।