यदि उसकी इच्छा हो कि मेरे कान्य में रस का अच्छा परिपाक हो, तो उसे उचित है कि उस रस के अभिव्यक्त करनेवाले काव्य में उससे विरुद्ध रस के अंगों का वर्णन न करे; क्योंकि यदि विरुद्ध रस के अंगों का वर्णन किया जायगा, तो उसकी अभिव्यक्ति होने पर वह प्रस्तुत रस को बाधित करेगा अथवा 'सुंदोपसुंद-न्याय' *[१] से दोनों नष्ट हो जायेंगे-न इसका ही मजा रहेगा, न उसका ही।
विरुद्ध-रसों का समावेश
पर, यदि कवि को विरुद्ध रसों का एक स्थान पर समा. वेश करना ही हो, तो विरोध का परिहार करके करना चाहिए। विरोध का परिहार कैसे करना चाहिए सो भी सुनिए। विरोध दो प्रकार का है-एक स्थितिविरोध और दूसरा ज्ञानविरोध। स्थितिविरोध का अर्थ है-एक ही आधार (पात्र) मे दोनों का न रह सकना, और ज्ञानविरोध का अर्थ है-एक के ज्ञान से दूसरे के ज्ञान का बाधित हो जाना अर्थात् जिन दो रसों का ज्ञान एक दूसरे का प्रतिद्वन्द्वी हो,
- ↑ * सुंद और उपसुंद की कथा यों है। सुद और उपसुद नाम के दो दैत्य थे। उन्होने बड़ी भारी तपस्या करके भगवान् ब्रह्मा को प्रसन किया । ब्रह्मा जी के वरदान से वे सब के अवध्य रहे, केवल परस्पर की लड़ाई से वे मर सकते थे। विश्वविजयी दोनों भाइयों की तिलोत्तमा नाम की अप्सरा की प्राप्ति के लिये लड़ाई हुई और वे मर मिटे। दे॰ महामा॰ आ॰ अ॰ २२८-३२। इस तरह दोनों के समबल होने के कारण नष्ट हो जाने के ढंग को 'सुंदोपसुंदन्याय' कहते हैं।
- र॰-९