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में कुछ सूक्ष्म विचार हो सकता है और पहली किंवदंती का कुछ अंश सिद्ध सा हो जाता है। उनमें से पहला श्लोक, जिसको उन्होंने काव्यप्रकाश की व्याख्या में नागेश भट्ट का लिखा हुआ बतलाया है, यह है—
दृप्यद्दाविड़दुर्ग्रहग्रहवशान्म्लिष्टं गुरुद्रोहिणा
यन्म्लेच्छेति वचोऽविचिन्त्य सदसि प्रौढेऽपि भट्टोजिना।
तत्सत्यापितमेव धैर्यनिधिना यत्स व्यमृनात्कुचं
निर्वध्याऽस्य मनोरमामवशयन्नप्पयाद्यान् स्थितान्॥
अर्थात् गर्वयुक्त द्राविड़ (अप्पय दीक्षित अथवा द्राविड़ लोगों) के दुराग्रह रूपी भूत के आवेश से गुरुद्रोही भट्टोजि दीक्षित ने भरी सभा मे बिना सोचे-समझे (पंडितराज से) अस्पष्टतया जो 'म्लेच्छ' यह शब्द कह दिया था उसको धैर्यनिधि पंडितराज ने सत्य कर दिखाया, क्योंकि इतने अप्पयादिक विद्वानों के विद्यमान रहते हुए, उन्हें विवश करके भट्टोजि दीक्षित की मनोरमा (सिद्धांतकौमुदी की व्याख्या) का कुचमर्दन (खंडन) कर दिया। बात भी ठीक है, जब पंडितराज को म्लेच्छ ही बना दिया गया, तो वे म्लेच्छ कहनेवाले की मनोरमा (स्त्री) का कुचमर्दन करके क्यों न उसे म्लेच्छता का चमत्कार दिखा देते।
दूसरा श्लोक 'शब्दकौस्तुभशाणोत्तेजन' नामक पुस्तक का है। वह यों है—
अप्पय्यदुर्ग्रहविचेतितचेतनानामार्यद्रुहामयमहं शमयेऽवलेपान्।