पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/२३९

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'हास' और 'जुगुप्सा' का प्राश्रय कौन होता है?

अब एक शंका हो सकती है कि रति, क्रोध, उत्साह, भय, शोक, विस्मय और निवेद इन स्थायी-मावों में जिस तरह पालंबन और आश्रय दोनों की प्रतीति होती है, जैसे कि यदि शकुंतला के विषय में दुष्यंत का प्रेम है तो शकुंचला प्रेम का आलंबन है और दुष्यंत आश्रय, और वहाँ इन दोनों की प्रतीति होती है; उस तरह हास और जुगुप्सा में नहीं होती; क्योंकि इन दोनों में केवल आलंबन की ही प्रतीति होती है, उनमें आश्रय का वर्णन होता ही नही। और यदि पद्य सुननेवाले को ही उनका प्राश्रय माना जाय तो यह उचित नहीं; क्योंकि वह तो रस के आस्वाद का आधार हैउसे तो अलौकिक रस की चर्वणा होती है, सो वह लौकिक हास और जुगुप्सा का आप्रय नही हो सकता। हम कहते हैं कि हाँ, यह सच है; पर वहाँ उन दोनों भावों के आश्रयकिसी देखनेवाले पुरुष का आक्षेप कर लेना चाहिए, उसे ऊपर से समझ लेना चाहिए। और यदि ऐसा न करें, तो भी जिस तरह सुननेवाले को अपनी स्त्री के वर्णन मे लिखे हुए पद्यों से रस का उद्घोध हो जाता है अर्थात् वहाँ जो लौकिक रति का आश्रय है, वही रस का भी अनुभवकतों हो जाता है, उसी तरह यहाँ भी लौकिक भाव और रस के आश्रय को एक ही मान लेने में कोई बाधा नहीं। इस तरह संक्षेप से रसों का निरूपण किया गया है।