मे स्तुति करनेवाले की जो भक्ति है, वही यहाँ प्रधान हैऔर विस्मय उसे उत्कृष्ट बनाता है, अतः उसकी अपेक्षा गौण हो गया है। जैसा कि महाभारत मे भगवद्गीता के अंदर,-जव अर्जुन ने विश्वरूप (विराट रूप ) के दर्शन किए तो उसने कहा-
"पश्यामि देवांस्तव देव! देहे सास्तथा भूत-विशेष संघान्-हे देव! मैं आपके शरीर मे सब देवताओं को तथा भिन्न-भिन्न प्रकार के प्राणियों के समूहों को देख रहा हूँ"। इत्यादि वाक्यों के संदर्भ मे आश्चर्य प्रतीत होता है, परन्तु वहाँ, अर्जुन की, भगवान के विषय मे उत्पन्न हुई, भक्ति प्रधान है और आश्चर्य गौण। इस तरह यह सिद्ध हुआ कि इस आश्चर्य को यहाँ रसालंकार कहना उचित है, रस-ध्वनि कहना नही। पर यदि आप फिर भी कहें कि 'इसमे भक्ति की प्रतीति होती ही नही' वो हम सहृदयों से प्रार्थना करेंगे कि आप लोग थोड़ा, ऑखें मीचकर, सोचिए- देखिए कि इसमे भक्ति की प्रतीति होती है, अथवा नहीं।
हास्य-रस; जैसे-
श्रीतातपादैर्विहिते निवंधे
निरूपिता नूतनयुक्तिरेषा-
अंगं गवां पूर्वमहो पवित्रं
न वा कथं रासभधर्मपल्याः?
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