फनि-पति धरनिहि परिहरै, कमठ हु करै अराम।
सुरपति, हौं निज-पंख पै राखों जगत तमाम॥
सर्पवीर शेषजी अपने ऊपर से पृथ्वी को हटा दें और कच्छप महाशय भी उसे छोड़कर आराम करे। हे इन्द्र! लो, मैं-एक ही, अपने पंख के एक कोने पर इस सब जगत् को विना घबराहट के धारण कर लेता हूँ। यह इंद्र के प्रति गरुड का कथन है।
आप कहेंगे कि 'अपि वक्ति' और 'परिहरतु धराम्..' इन दोनों पद्यों में तो गर्व ही ध्वनित होता है, उत्साह नहीं, और बीच के पद्य 'अपि वहल...' में धृति-भाव ध्वनित होवा है, अत: ये भाव की ध्वनियाँ हैं, रस की नही; तो फिर आप युद्ध-वीरादिकों मे भी गर्व आदि की ध्वनियो को ही क्यों नहीं बता देते, अथवा यावन्मात्र रस ध्वनियों को, उनमे जो व्यभिचारी भाव ध्वनित होते हैं, उनकी ध्वनियों हैं, यह कहकर क्यों नहीं गतार्थ कर देते? यदि आप कहे कि उनमे जो स्थायी भाव की प्रतीति होती है, वह छिपाई नही जा सकती-उसे स्वीकार करना ही पड़ता है, वो सोच देखिए, वही वाव यहाँ भी है। 'पीछ के पद्यों में तो उत्साह प्रतीत नही होता है और 'दया-वीर'-आदि में प्रतीत होता है'-यह कहना तो केवल राजाज्ञा है अर्थात् जबरदस्ती का लट्ठ है। अतः यह सिद्ध है कि पूर्वोक्त गणना अपर्याप्त ही है।