पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/२१७

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यद्यपि अन्यत्र गुरु का स्मरण होने पर अहंकार का निवृत्त हो जाना आवश्यक है, पर इस प्रसंग मे, ऐसे अवसर पर भी, गर्व का उत्कर्ष प्रकाशित होने से परशुरामजी की विवेकरहितता स्पष्ट प्रतीत होती है, और उसके द्वारा उनके क्रोध की अधिकता ज्ञात होती है। यहाँ गर्व का उत्कर्ष प्रकाशित करनेवाला, गुरु के साथ लगा हुआ 'मेरे' शब्द है; उससे 'अजहत्स्वार्था लक्षणा' के द्वारा यह ध्वनित होता है कि "मैं पृथ्वी को इक्कीस बार निःक्षत्रिय करनेवाला हूँ (फिर मेरे गुरु के धनुष को कौन छू सकता है। यह तो है उदाहरण, अब प्रत्युदाहरण सुनिए-

धनुर्विदलनध्वनिश्रवणतत्क्षणाविर्भव-
न्महागुरुवधस्मृतिः श्वसनवेगधूताधरः।
विलोचनविनिःसरद्बहलविस्फुलिङ्गव्रजो
रघुप्रवरमाक्षिपञ्जयति जामदग्न्यो मुनिः॥

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धनु-विदलन को शब्द सुनि मरण भयो तत्काल।
परम-गुरू जमदग्नि के वध को सब अहवाल॥
वध को सब अहवाल सांस कंपे दशनच्छद।
नैननि निकसत उग्र आग के कनिका बेहद॥
जयति परशुधर राम राम पैह्र निर्दय मन।
करत प्रबल आक्षेप कियो क्यों तै धनु-विदछन॥

जिनको धनुष टूटने का शब्द सुनते ही, तत्काल, महागुरु जमदग्नि के वध का स्मरण हो आया, अतएव श्वास-वायु के वेग