पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/२१४

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विधूतान्तर्ध्वान्ता मधुर-मधुरायां चिति कदा
निमग्नः स्यां कस्याञ्चन नव-नभस्याम्बुदरुचि॥
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श्रीगंगा के पुलिन बैठि करि नयन-निमीलन।
तजिके महा-उपाधिल्प ये सकल विषयान॥
अन्त करण मलीन करि दियो जाने इकदम।
करिके दूर समग्र वह अज्ञानरूप तम॥
भादौं के नव-धन-सरिस परम मनोहर कान्तिमय।
मधुर मधुर चैतन्य मे होवेगो कठ नम विलय॥

श्रीगंगाजी के वालुकामय तट पर बैठा हुआ मैं, आँखें मीचकर, सब सांसारिक विषयों को, उसी समय, दूर हटाकर एवं अंतःकरण के अंधकार (अज्ञान) से रहित होकर, भाद्रपद के नवीन मेघ के समान कांतियुक्त किसी (अनिर्वचनीय) परममधुर चैतन्य मे कब निमग्न हो जाऊँगा-उसकी तन्मयता मुझे कब प्राप्त होगी।

यद्यपि इस पद्य में भी विषयों का निरादर आलंबन है, गंगा के तट आदि उहीपन हैं, आँखो का मींचना आदि अनुभाव हैं और उनके संयोग से स्थायी भाव निर्वेद की प्रतीति होती है; तथापि भगवान् वासुदेव को प्रेमपात्र मानकर जो कवि का प्रेम है, उसकी अपेक्षा निर्वेद गौण हो गया है। इस कारण निर्वेद के रहते हुए भी यह पद्य 'शांत-रस' की ध्वनि नहीं कहा जा सकता। यह पद्य मेरी (पंडितराज की)