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प्रवास*[१], अभिलाष, विरह, ईर्ष्या और शाप के कारण जो वियोग होते हैं, उनमें कोई विशेषता न समझ पड़ने के कारण हमने उनका विस्तार नहीं किया।
करुण-रस, जैसे-
अपहाय सकलवान्धवंचिन्तामुद्वास्य गुरुकुलमणयम्।
हा! तनय!! विनयशालिन्!!! कथमिव परलोकपथिकोऽभूः।
सब बंधुन को सोच तजि तजि गुरकुल को नेह।
हा! सुशील सुत!! किमि कियो अनत लोक ते गेह॥
हाय! अत्यंत सुशील बेटे! तू सब बंधुओं की चिता को त्यागकर और गुरुकुल के प्रेम को भी हटाकर किस तरह परलोक का पथिक हो गया!
यहाँ मरा हुआ पुत्र आलंबन है, उस समय मे आए हुए बांधवों का दर्शन आदि उहीपन हैं, रोना अनुभाव है और दैन्य आदि व्यभिचारी भाव हैं।
शांत-रस; जैसे-
मलयानिलकालकूटयो रमणीकुन्तलभोगिभोगयोः।
श्वपचात्मभुवोर्निरन्तरा मम जाता परमात्मनि स्थितिः॥
- ↑ * प्रिय के परदेश जाने की हालत में प्रवासरूप, समागम से पूर्व ही गुणश्रवण आदि से अभिलाषरूप, गुरुजनों की लज्जादि के कारण रुकने पर विरहरूप, मान से ईर्ष्यारूप और जिस तरह शकुंतला को दुर्वासा के शाप से वियोग हुआ उस तरह होने पर शापरूप उपाधियाँ हुआ करती हैं जिनके कारण वियोग को पाँच प्रकार का कहा जाता हैयह है प्राचीन श्राचार्यों का अभिप्राय।