पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/२१०

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अति-सांस ते सूखे भए अधरा पर ते कुच डारती लोचन-पानी।
वह बालिका चंचल नैनन ने निज-नाथ निहारत हाय! अयानी॥

एक सखी दूसरी सखी से कहती है-पतिदेव के परदेश जाने का समय है, लोग अत्यधिक मांगलिक वचन वोल रहे हैं, पर वह चंचलनयनी बालिका (नवोढ़ा) रति-भवन के झरोखे मे मुख-कमल डाले हुए बैठी है, अत्यंत श्वासों के कारण कुम्हलाए हुए अधरों पर अश्रु गिर रहे हैं और उनसे कुच भीग गए हैं। शिव! शिव!! ऐसी दशा को प्राप्त हुई वह अपने प्राणनाथ को देख रही है। उस बेचारी को न यह बोध है कि अश्रु गिरने से अशकुन होगा और न यही शंका है कि लोग क्या कहेंगे।

इस पद्य मे (नायिका के प्रेमपात्र) नायकरूपी आलंबन के, निःश्वास, अश्रु-पातादिरूप अनुभाव के और विषाद, चिंता, आवेग आदि व्यभिचारी भावों के संयोग से ध्वनित हुई नायिका की रति, वियोग-काल मे होने के कारण 'विप्रलंभ रस' के निर्देश का कारण है। अथवा; जैसे-

आविर्भूता यदवधि मधुस्यन्दिनी नन्दसूनोः
कान्तिः काचिनिखिलनयनाकर्षणे कार्मणज्ञा।
खासा दीर्घस्तदवधि मुखे पाण्डिमा गण्डयुग्मे
शून्या वृत्तिः कुलमृगदृशां चेतसि प्रादुरासीत्॥
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