गुणों का श्रवण और कीर्तन आदि एवं कंप, रोमांच आदि 'सात्त्विक भाव' अनुभाव; और स्मरण, चिता आदि व्यभिचारी भाव होते हैं।
करुण-रस के बंधु का नष्ट हो जाना आदि प्रालंबन विभाव: उसके घर, घोड़े, गहने आदि का देखना आदि तथा उसकी बातें सुनना आदि उहोपन विभाव; शरीर का पछाड़ना (छटपटाना) और अश्रुपात आदि अनुभाव और ग्लानि, श्रम, भय, मोह, विषाद, चिता, औत्सुक्य, दीनता और जड़ता आदि व्यभिचारी भाव होते हैं।
शांत-रस के अनित्य रूप से समझा हुआ जगत् प्रालंबन विभाव, वेदांत का सुनना, तपोवन एवं तपस्वियों का दर्शनादि उद्दीपन विभाव, विषयों से अरुचि,शत्रु-मित्रादिको से उदासीनता, निश्चेष्टता, नासिका के अप्रभाग पर दृष्टि प्रादि अनुभाव और हर्षे, उन्माद, स्मृति, मति आदि व्यभिचारी भाव होते हैं।
रौद्र-रस के अपराध करनेवाला पुरुष आदि प्रालंबन विभाव; उसका किया हुआ अपराध आदि उद्दीपन विभाव; लाल नेत्र करना, दॉत चबाना, कठोर भाषण करना, शस्त्र उठाना इत्यादि, जिनका फल वध अथवा बंधन आदि हैं, अनुभाव, और अमर्ष, वेग, उग्रता, चपलता आदि व्यभिचारी भाव होते हैं। इत्यादि।
इस तरह जो चित्तवृत्ति जिसके विषय मे होती है, वह उसका आलंबन और जो निमित्त हैं, वे उद्दीपन होते हैं-यह समझ लेना चाहिए।