९-जुगुप्सा
किसी घृणित वस्तु के देखने से जो घृणा नामक एक प्रकार की चित्तवृत्ति उत्पन्न होती है, उसे 'जुगुप्सा' कहते हैं।
विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भाव
विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भाव
इन्ही स्थायी भावों को हम लोग, संसार मे, उन उन नायकों मे देखा करते हैं। ऐसे स्थानों पर जो वस्तुएँ उन चित्तवृत्तियों के आलंबन-अर्थात् विषय-अथवा उद्दीपनअर्थात् जोश देनेवालो—होने के कारण, 'कारण' रूप से प्रसिद्ध हैं, वे ही काव्य अथवा नाटक मे इन (स्थायी भावों) के अभिव्यक्त होने पर 'विभाव' कहलाने लगती हैं, क्योंकि व्युत्पत्ति के अनुसार विभाव-शब्द का अर्थ (रति आदि के) 'उत्पन्न करनेवाले' अथवा 'समृद्ध करनेवाले' हैं।
उन स्थायी भावों से जो कार्य उत्पन्न होते हैं जैसे रोमांचादिक; उन्हें 'अनुभाव' कहते हैं; क्योंकि व्युत्पत्ति के अनुसार अनुभाव शब्द का अर्थ 'जो (स्थायी भावों के) अनंतर उत्पन्न हो' अथवा 'जो उनका अनुभव करावे' यह है।
जो स्थायी भावों के साथ मे रहनेवाली चित्तवृत्तियों होती हैं जैसे चिता आदि, उन्हे 'व्यभिचारी भाव' कहते हैं।
विभावादि के कुछ उदाहरण
शृंगार-रस के स्त्री पुरुष आलंवन विभाव, चाँदनी, वसंत ऋतु, अनेक प्रकार के बाग वगीचे, सुखप्रद पवन और एकांत स्थान आदि उद्दीपन विभाव; प्रेमपात्र के मुख का दर्शन, उसके