पता लग जाय तो व्याकुलता प्रधान रहती है, और प्रेम उसे पुष्ट करता है, इस कारण वहाँ करुण-रस ही होता है। और जब कि मर जाने का ज्ञान होने पर भी देवता की प्रसन्नता आदि से, किसी प्रकार, उसके पुनः जीवित होने का ज्ञान हो सके, तो आलवन ( प्रेमपात्र ) के सर्वथा नष्ट न हो जाने के कारण, लंबे परदेशवास की तरह, 'विप्रलंभ' ही होता है; 'करुण' नही, जैसा कि (कादंबरी में) चन्द्रापीड से महाश्वेता ने जो वादें की हैं, उनमे। कुछ लोगों की इच्छा है-ऐसी जगह एक दूसरा ही रस मानना चाहिए, जिसका नाम 'करुण-विप्रलंभ' है।
३-निर्वेद
जिसकी (वेदांत आदि के द्वारा) नित्य और अनित्य वस्तुओं के विचार से उत्पत्ति होती है, और जिसका नाम विषयों से विरक्ति है उसे 'निवेद' कहते हैं। वही निर्वेद यदि घर के झगड़े आदि से उत्पन्न हुआ हो, तो व्यभिचारी भाव होता है।
४-क्रोध
जिसकी, गुरु अथवा बंधु के मरने आदि-किसी प्रबल अपराध के कारण, उत्पत्ति होती है, और जिसका नाम जलन है, उसे 'क्रोध' कहते है। यह शत्रु-विनाश आदि का कारण होता है। यही जलन यदि किसी छोटे मोटे अपराध से उत्पन्न हुई हो, तो कठोर वचन और मौन-आदि का कारण