पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/२०३

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हैं तो व्यभिचारी कहलाते है। इस तरह मान लेने पर वीररस के प्रधान होने पर क्रोध, रौद्र-रस के प्रधान होने पर उत्साह और शृंगार-रस के प्रधान होने पर हास व्यभिचारी होता है और बिना उनके वे रस रहते ही नहीं, यह भी सिद्ध है। जब प्रधान रस को पुष्ट करने के लिये उस (अंगभूत भाव क्रोध आदि) को भी अधिक विभावादिकों से अभिव्यक्त किया जाता है, तो वह 'रसालंकार' कहलाने लगता है इत्यादि समझ लेना चाहिए।

स्थायी भावों के लक्षण

१-रति

स्त्री-पुरुष की, एक दूसरे के विषय मे, प्रेम नामक जो चित्तवृत्ति होती है, उसे 'रति' स्थायी भाव कहते हैं। वही प्रेम यदि गुरु, देवता अथवा पुत्र आदि के विषय मे हो, तो व्यभिचारी भाव कहलाता है।

२-शोक

पुत्र-आदि के वियोग अथवा मरण आदि से उत्पन्न होने वाली व्याकुलता नामक जो एक चित्तवृत्ति होती है, उसे 'शोक' कहते हैं। परंतु स्त्री-पुरुष के वियोग मे, जब तक प्रेमपात्र के जीवित होने का ज्ञान हो, तब तक व्याकुलता से पुष्ट किए हुए प्रेम की ही प्रधानता रहती है, अतः 'विप्रलंभ' नामक शृंगार-रस होता है। उस समय जो व्याकुलता रहती है, वह व्यभिचारी भाव मात्र है। पर यदि प्रेमपात्र के मरने का