पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/२०१

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चमक बिजली की चमक की तरह अस्थिर होती है; अत वे स्थायी भाव नहीं कहला सकते*[१]। जैसा कि लिखा है-

विरुद्धैरविरुदैर्वा भावैर्विच्छिद्यते न यः।
आत्मभावं नयत्याशु स स्थायी लवणाकरः॥
चिरं चित्तेवतिष्ठन्ते संबध्यन्तेऽनुबन्धिभिः।
रसत्वं ये प्रपद्यन्ते प्रसिद्धाः स्थायिनोऽत्र ते॥

तथा-

सजातीयविजातीयैरतिरस्कृतमूर्तिमान्।
यावद्रसं वर्त्तमानः स्थायिभाव उदाहृतः॥

अर्थात् जो भाव विरोधी एवं अविरोधी भावों से विच्छिन्न नही होता; कितु विरुद्ध भावो को भी शीघ्र अपने रूप में परिणत कर लेता है, उसका नाम स्थायी है और वह लवणा-

  1. * यहाँ म॰ म॰ श्रीगंगाधर शास्त्री जी की टिप्पणी है, जिसका अभिप्राय यह है-यदि वेदांतियो के मत के अनुसार यह माना जाय कि कोई भी चित्तवृत्ति उसके विरुद्ध चित्तवृत्ति उत्पन्न होने तक स्थिर रहती है, तो स्थिर-पद का बार बार अभिव्यक्त होना अर्थ करने की आवश्यकता नहीं। और जो 'विरुद्धै .....' इस कारिका मे विरुद्ध भावो से भी स्थायी भाव का विच्छेद न होना लिखा है, सो लौकिक दृष्टि से जो भाव विरुद्ध दिखाई देते है, उनके विपय मे लिखा गया है। काव्य मे तो 'अयं स रशनोत्कर्षी ..'इत्यादि स्थलों में लोकदृष्टया विरुद्ध भाव-प्रेम आदि-भी शोक अदि के पोषक ही होते है-यह अनुभवसिद्ध है। अन्यथा ऐसे स्थलों में प्रतिकूलविभावादि ग्रह' रूपी रसदोष होगा, जो कि किसी को भी सम्मत नहीं।