पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/१९९

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ८४ )


है-वे भजन-कीर्त्तन आदि शांतरस के अभिव्यंजक हो सकते हैं। इसी कारण, 'संगीतरत्नाकर' के अंतिम अध्याय मे-

अष्टावेव रसा नाट्येष्विति केचिदचूचुदन्।
तदचारु यतः कञ्चिन्न रसं स्वदते नटः॥

अर्थात् 'नाटकों मे आठ ही रस है। यह जो कुछ लोगो की शंका है, सो ठीक नही; क्योंकि नट किसी रस का आस्वादन नहीं करता इत्यादि लिखकर यह सिद्ध कर दिया है कि नाटकों में भी शांत-रस है। परंतु जो लोग 'नाटकों मे शांतरस नही है। यह मानते है, उन्हे भी, किसी प्रकार की बाधा न होने के कारण, एवं 'महाभारतादि ग्रंथो मे शांतरस ही प्रधान है। यह बात सब लोगों के अनुभव से सिद्ध होने के कारण, उसे (शांतरस को ) काव्यो में अवश्य स्वीकार करना पड़ेगा। इसी कारण, मम्मट भट्ट ने भी "अष्टौ नाट्ये रसाः स्मृताः (नाटक मे पाठ रस माने गए हैं)" इस तरह प्रारंभ करके "शांताऽपि नवमो रसः (शांत भी नौवाँ रस है)" इस तरह उपसंहार किया है। अर्थात् उनके हिसाब से भी काव्यों में शांतरस सिद्ध है। तब रस नौ हैं, इस बात में कोई संदेह नहीं।


स्थायी भाव

पूर्वोक्त रसों के, क्रम से, रति, शोक, निर्वेद, क्रोध, उत्साह, विस्मय, हास, भय और जुगुप्सा ये स्थायी भाव होते हैं। अर्थात् शृंगार का रति, करुण का शोक, शांत का निर्वेद, रौद्र का क्रोध, वीर का उत्साह, अद्भुत का विस्मय, हास्य