अब जो तीन मत शेष रहे, उनमे सूत्र का अर्थ संगत नही होता, अत: उनका सूत्र से विरोध पर्यवसित होता है-अर्थात् वे स्वतंत्र मत हैं, सूत्रानुसारी नहीं।
विभावादिकों में से प्रत्येक को रसव्यंजक
क्यों नहीं माना जाता
विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भाव इनमे से केवल एक-अर्थात् केवल विभाव, केवल अनुभाव अथवा केवल व्यभिचारी भाव-का किसी नियत रस को ध्वनित करना नही बन सकता; क्योंकि वे जिस तरह एक रस के विभाव आदि होते हैं, उसी तरह दूसरे रस के भी हो सकते हैं। उदाहरण के लिये देखिए, व्याघ्र आदि जिस तरह भयानक रस के विभाव हो सकते हैं, उसी प्रकार वीर, अद्भुत और रौद्र-रस के भी हो सकते है; अश्रुपातादिक जिस तरह श्रृंगार के अनुभाव हो सकते हैं, उसी प्रकार करुण और भयानक के भी हो सकते हैं; चितादिक जिस तरह श्रृंगार के व्यभिचारी हो सकते हैं, उसी प्रकार करुण, वीर और भयानक के भी हो सकते हैं। अतः सूत्र में तीनों को सम्मिलित रूप में ही ग्रहण किया गया है, प्रत्येक को पृथक पृथक् नहीं। जब इस प्रकार यह प्रमाणित हो चुका कि तीनों के सम्मिलित होने पर ही रस ध्वनित होता है, तब, जहाँ कही, किसी असाधारण रूप मे वर्णित विभाव, अनुभाव अथवा व्यभिचारी भाव मे से किसी एक से ही रस का उद्धोध हो जाता है, जैसे कि निम्नलिखित पद्य मे