(१०)
दूसरे कहते हैं
बार बार चिंतन किया हुआ अनुभाव ही रस है।
(११)
तीसरे कहते हैं
कि बार वार चितन किया हुआ व्यभिचारी भाव ही रस. रूप मे परिणत हो जाता है।
पूर्वोक्त मतों के अनुसार भरतसूत्र की व्याख्याएँ
यह तो हुआ रसों के विषय मे मतभेद। अब इन सबका मूल जो भरत-मुनि का यह सूत्र है कि-
"विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः।"
इसकी पूर्वोक्त मतो के अनुसार व्याख्याएँ भी सुनिए । प्रथम मत के अनुसार-"विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भावो के द्वारा, संयोग अर्थान् ध्वनित होने से, आत्मानंद से युक्त स्थायी भाव रूप अथवा स्थायी भाव से उपहित आत्मानंदरूप रस की, निष्पत्ति होती है अर्थात् वह अपने वास्तव रूप मे प्रकाशित होता है। यह अर्थ है।
द्वितीय मत के अनुसार-"विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भावो के (सं+योग) सम्यक् अर्थात् साधारण रूप से, योग अर्थात् भावकत्व व्यापार के द्वारा भावना करने से, स्थायी भाव रूप उपाधि से युक्त सत्वगुण की वृद्धि से प्रका-