अपने कारण से सुख और दुःख दोनों उत्पन्न हो जायेंगे। अब यह प्रश्न हो सकता है कि यदि करुण रसादिक मे दुःख की भी प्रतीति होती है, तो ऐसे काव्यों के बनाने के लिये कवि, और सुनने के लिये सहृदय क्यों प्रवृत्त होगे ? क्योंकि जब ऐसे काव्य अनिष्ट का साधन है, तो उनसे निवृत्त होना ही उचित है। इसका उत्तर यह है कि जिस तरह चंदन का लेप करने से शीतलता-जन्य सुख अधिक होता है और उसके सूख जाने पर पपड़ियों के उखड़ने का कष्ट उसकी अपेक्षा कम; इसी प्रकार करुण रसादिक मे भी वांछनीय वस्तु अधिक है और अवांछनीय कम, इस कारण सहृदय लोग उनमे प्रवृत्त हो सकते है। और जो लोग काव्यों मे शोक आदि से भी केवल आनंद की ही उत्पत्ति मानते हैं, उनकी प्रवृत्ति मे तो कोई झगडा है ही नहीं। हॉ, उनसे आपका यह प्रश्न हो सकता है कि यदि करुण रसादिक मे केवल अानंद ही उत्पन्न होता है, तो फिर उनके अनुभव से अश्रुपातादिक क्यों हाते हैं ? इसका उत्तर यह है कि उन आनंदो का यही स्वभाव है, अत. जो अनुपात होता है, वह दुःख के कारण नही । अतएव भगवद्भक्त लोग जब भगवान का वर्णन सुनते हैं, तब उनको अश्रुपावादि होने लगते है; पर उस अवस्था मे किचिन्मात्र भी दुःख का अनुभव नहीं होता। आप कहेंगे कि करुण रसादिक मे शोक आदि से युक्त दशरथ आदि से अभेद मान लेने पर यदि आनंद आता है, तो स्वप्न आदि मे अथवा लन्निपात
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