पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/१८४

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सुख शब्द से व्यवहार करते हैं। कह देते हैं कि 'रस' सुखरूप है। इसी तरह इसके पूर्व, व्यंजनावृत्ति के द्वारा, शकुंतला आदि के विषय मे जो दुष्यंत आदि की रति आदि का बान होता है, उसका और इस-झूठे प्रेम आदि-का भेद विदित नहीं होता, अत: हम इसे व्यंग्य और वर्णन करने योग्य कह देते हैं-अर्थान् हम यह कहने लगते हैं कि यह व्यंजना वृत्ति से प्रकाशित हुआ है और कवि ने इसका वर्णन किया है। इसी प्रकार सहृदयों की आत्मा को आच्छादित करनेवाला दुष्यंतत्व भी अनिर्वचनीय ही है, उसके भी स्वरूप का यथार्थ निरूपण नहीं हो सकता। वह हमारे आत्मा का आच्छादन कैसे करता है सो भी समझ लेना चाहिए। वह यों है कि जब हम अपने आपको दुष्यंत समझ लेते हैं, तब यह समझते हैं कि यह रति आदि हमारे ही हैं, किसी अन्य व्यक्ति के नही; बस, इसी का अर्थ यह है कि हमको दुष्यंतत्व ने आच्छादित कर दिया। इस तरह मानने से, भट्टनायक की जो ये शंकाएँ हैं कि-"दुष्यंत आदि के जो रति आदि हैं, उनका तो हमे आस्वादन नहीं हो सकता; अत: वे रस नही कहला सकते; और अपने रति आदि व्यक्त नही हो सकते, क्योंकि उनका शकुंतला आदि से कोई संबंध नहीं। यदि दुष्यंत के साथ अपना अभेद माने तो वह हो नहीं सकता, क्योंकि हमको 'वह राजा हम साधारण पुरुष' इत्यादि वाधक ज्ञान है-इत्यादि।" सो सव उड़ गई; इस पक्ष में उनको अवकाश ही नहीं है। और जो कि