पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/१८०

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विरोध के स्पष्ट प्रतीत होने के कारण उसके साथ अपना अभेद समझना दुर्लभ है।

यह तो हुई एक बात। अब हम आपसे एक दूसरी बात पूछते हैं—यह जो हमे रस की प्रतीति होती है सो है क्या? दूसरा कोई प्रमाण तो इस बात को सिद्ध करनेवाला है नहीं; अतः (काव्य सुनने से उत्पन्न होने के कारण) इसे शब्द-प्रमाण से उत्पन्न हुई समझिए। सो हो नहीं सकता। क्योंकि ऐसा मानने पर, रात दिन व्यवहार में आनेवाले अन्य शब्दों के द्वारा ज्ञात हुए, स्त्री पुरुषों के वृत्तांतों के ज्ञान में जैसे कोई चित्ताकर्षकता नहीं होती, वही दशा इस प्रतीति की भी होगी। यदि इसे मानस ज्ञान समझें, तो यह भी नहीं बन सकता; क्योंकि सोच साचकर लाए हुए पदार्थों का मन में, जो बोध होता है, उससे इसमें विलक्षणता दिखाई देती है। न इसे स्मृति ही कह सकते हैं; क्योंकि उन पदार्थों का वैसा अनुभव पहले कभी नहीं हुआ है, और जिस वस्तु का अनुभव नही हुआ हो, उसकी स्मृति हो नहीं सकती। अतः यह मानना चाहिए कि अभिधा शक्ति के द्वारा जो पदार्थ समझाए जाते हैं, उन पर "भावकत्व" अथवा "भावना" नामक एक क्रिया की कार्रवाई होती है। उसका काम यह है—रस के विरोधी जो 'अगम्या होना आदि' के ज्ञान हैं, वे हटा दिए जाते हैं, और रस के अनुकूल 'कामिनीपन' आदि धर्म ही हमारे सामने आते हैं। इस तरह वह क्रिया दुष्यंत, शकुंतला, देश, काल,

रा॰—५