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हमारा कुछ संबंध तो अवश्य होना चाहिए—उसमे वह योग्यता होनी चाहिए कि वह हमारा प्रेमपात्र बन सके। आप कहेगे कि 'स्त्री होने' के कारण वे साधारण रूप से विभाव बनने की योग्यता रख सकती हैं। सो यह ठीक नहीं। जिसे हम विभाव (प्रेमपात्र) मानते हैं, उसके विषय में हमे यह ज्ञान अवश्य होना चाहिए कि 'वह हमारे लिये अगम्य नहीं है—उसके साथ हमारा प्रेम हो सकता है', और वह ज्ञान भी ऐसा होना चाहिए कि जिसकी अप्रामाणिकता (गैरसबूती) न हो—अर्थात् कम से कम, हम यह न समझते हों कि यह बात बिलकुल गलत है। अन्यथा स्त्री तो हमारी बहिन आदि भी होती हैं, वे भी विभाव होने लगेगी। इसी तरह करुण-रसादिक में जिसके विषय में हम 'शोक' कर रहे हैं, वह अशोच्य (अर्थात् जिसका सोच करना अनुचित है, जैसे ब्रह्मज्ञानी) अथवा निदित पुरुष (जिसके मरने से किसी को कष्ट न हो) न होना चाहिए। अब जिसे हम विभाव मानते है, उसके विषय में वैसे (अगम्य होने आदि के) ज्ञान की उत्पत्ति का न होना किसी प्रतिबंधक (उस ज्ञान को रोकनेवाले) के सिद्ध हुए बिना बन नहीं सकता। यदि आप कहे कि 'दुष्यंतादिक (जिनकी शकुंतलादिक प्रेमपात्र थी) के साथ हमारा अपने को अभिन्न समझ लेना' ही उस ज्ञान का प्रतिबंधक है; सो ठोक नही; क्योंकि शकुंतला का नायक दुष्यंत पृथिवीपति और धीर पुरुष था और हम इस जमाने के क्षुद्र मनुष्य हैं, इस