रस का स्वरूप और उसके विषय में ग्यारह मत
प्रधान लक्षण
(१)
अभिनवगुप्ताचार्य और मम्मट भट्ट का मत
(क)
सहृदय पुरुष, संसार में, जिन रवि-शोक आदि भावों का अनुभव करता है, वह कभी किसी से प्रेम करता है और कभी किसी का सोच इत्यादि, उनका उसके हृदय पर संस्कार जम जाता है—वे भाव वासनारूप से उसके हृदय में रहने लगते है। वे ही वासनारूप रति आदि स्थायी भाव, जो एक प्रकार की चित्तवृत्तियाँ हैं और जिनका वर्णन आगे स्पष्ट रूप से किया जायगा, जब स्वतः प्रकाशमान और वास्तव में विद्यमान आत्मानंद के साथ अनुभव किए जाते हैं, तो "रस" कहलाने लगते हैं। पर उस आनंदरूप आत्मा के ऊपर अज्ञान का आवरण आया हुआ है—वह अज्ञान से ढँक रहा है; और जब तक उस आत्मानंद का साथ न हो, तब तक वासनारूप रति आदि का अनुभव किया नहीं जा सकता। अतः उसके उस आवरण को दूर करने के लिये एक अलौकिक क्रिया उत्पन्न की जाती है। जब उस क्रिया के द्वारा अज्ञान, जो उस आनंद का आच्छादक है, दूर हो जाता है, तो अनुभवकर्त्ता में जो अल्पज्ञता रहती है, उसे जो कुछ पदार्थों का बोध होता है और