पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/१७

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तैलंग वेलनाटीय द्विज जगन्नाथ तिरशूलधर।
शाहिजहाँ दिल्लीश किय पंडितराज प्रसिद्ध धर॥
उनके पग को ध्यान धरि इष्टदेव सम जानि।
उक्ति-जुक्ति बहु भेद भरि ग्रंथहि कहौ बखानि॥

—संग्रामसार, प्रथम परिच्छेद, पद्य ४-५

इसके अतिरिक्त 'रस-रहस्य' में जो उन्होंने काव्यलक्षण लिखा है, वह भी इन्हीं की शैली का है। काव्यप्रकाश तथा साहित्यदर्पण के काव्यलक्षण पृथक् लिखे गए हैं तथा साहित्यदर्पण के काव्यलक्षण का तो खंडन भी किया गया है। रसरहस्य का काव्यलक्षण यों है—

जग ते अद्भुत सुख-सदन शब्द रु अर्थ कवित्त।
यह लक्षण मैंने कियो समुझि ग्रंथ बहु चित्त॥

पर मिश्रजी के इस पद्य से एवम् उनके रचित समग्र रसरहस्य से भी यह सिद्ध होता है कि जिस समय पंडितराज और मिश्रजी का समागम रहा, उस समय या तो पंडितराज रसगंगाधर लिख नहीं पाए थे, या इनका समागम ही स्वल्प रहा था; क्योंकि उस पुस्तक में केवल इस लक्षण के अतिरिक्त जितनी बातें लिखी गई हैं, वे सब 'काव्यप्रकाश' से ली गई हैं और इस लक्षण में भी शब्द और अर्थ दोनों को काव्य माना गया है, जो कि 'रसगंगाधर' के लक्षण के विरुद्ध है।

पंडितराज के एक दूसरे शिष्य का भी पता लगता है। वे पंडितराज के सजातीय थे और उनका नाम नारायण भट्ट था।