प्रहरविरता मध्ये वाह्नस्ततोऽपि परेण वा
किमुत सकले याते वाह्नि प्रिय त्वमिहेष्यसि?
इति दिनशतप्राप्यं देशं प्रियस्य यियासतो
हरति गमनं वालाऽऽलापैः सवाष्पगलज्जलैः॥
"प्यारे! क्या आप एक पहर के बाद लौट आवेगे, या मध्याह्न मे, अथवा उसके भो बाद? किंवा पूरा दिन बीत जाने पर ही लौटेंगे?", अश्रुधारा सहित, इस तरह की बातों से चालिका (नवोढा), जहाँ सैकड़ों दिनों में पहुंचनेवाले हैं, उस देश मे जाना चाहते हुए प्रेमी के जाने का निषेध कर रही है-उसे जाने से रोक रही है।
इस पद्य मे "सारा दिन पूरी अवधि है, उसके बाद मैं न जी सकूँगी" यह व्यंग्य है, और वाच्य है "प्यारे के जाने का निवारण"| अव सोचिए कि "प्यारे का न जाना" तभी हो सकता है, जब कि वह यह समझ ले कि "यह एक दिन के वाद न जी सकेगी” सो यह वाच्य-अर्थ पूर्वोक्त व्यंग्य से सिद्ध होता है, इस कारण यह काव्य "गुणीभूत व्यंग्य" (मध्यम ) है। यह है चित्रमीमांसाकार का कथन ।
अब पंडितराज के विचार सुनिए। वे कहते हैं-गुणीभूत व्यंग्य का यह उदाहरण ठीक नही; क्योंकि अश्रुधारा सहित "क्या आप एक पहर के वाद लौट आवेगे?" इत्यादि कथन ही से "प्यारे का न जाना, रूपी वाच्य सिद्ध हो जाता है,