जो अपने (नायिका के) अपराध बन सकते हैं, ऐसे कर्म के अतिरिक्त अन्य तो बता नही सकती। और वैसे कर्म भी जो दूती के भेजने के पहले हुए थे, वे तो सब सह ही लिए गए हैं, सो उनको उघाड़ने की आवश्यकता नहीं। तब अंततोगत्वा, सब बखेड़े के हटने के बाद, दूती का संभोग ही सिद्ध होता है। यह जो आप (अप्पय दीक्षित) ने लिखा है, वह भी खंडित हो जाता है। क्योंकि चतुर और उत्तम नायिका सखियों के सामने, उसी (दूती) से संभोग करना जो अपने नायक का अपराध है, उसे स्पष्ट प्रकट करे, यह सर्वथा अनुचित है; अतः जिन पुराने अपराधों को वह सह चुकी है, वे बड़े असह्य थे, इस कारण उसे दूती के सामने उन्ही का प्रतिपादन करना अभीष्ट था। बस, इतने मे सब समझ लीजिए।
उत्तम काव्य
जिस काव्य में व्यंग्य चमत्कार-जनक तो हो, पर प्रधान न हो, वह "उत्तम काव्य होता है।"
जो व्यंग्य वाच्य-अर्थ की अपेक्षा प्रधान हो और दूसरे किसी व्यंग्य की अपेक्षा गौण हो, उस व्यंग्य मे अतिव्याप्ति न हो जाय, इसके लिये "प्रधान न हो' लिखा है, और जिन वाच्य-चित्र-काव्यों मे व्यंग्य लीन हो जाता है-उसका कुछ भी चमत्कार नहीं रहता कितु केवल अर्थालंकारों-उपमादिकों-की ही प्रधानता रहती है, उनमे अतिव्याप्ति न हो जाय, इसलिये लिखा है कि "चमत्कार-जनक हो"।