कि पूर्वोक्त व्यंग्य का एक अंश "उसके पास गई थो" यह तो, आपके हिसाब से, व्यंग्य है नहीं, लक्ष्य है।
अब यदि आप कहे कि "उसके पास ही गई थी। इस अंश के लक्ष्य होने पर भी जो जाने का फल है "रमण", वह तो व्यंग्य ही रहा; क्योंकि वह तो लक्षणा से ज्ञात हो नहीं सकता। सो भी नही, क्योंकि आपने ही "चित्रमीमांसा मे लिखा है"अधम शब्द का अर्थ हीन है, और हीन दो प्रकार से हो सकता है-एक जाति से, दूसरे कर्म से। सो उत्तम नायिका अपने नायक को जाति से हीन तो बता नही सकती........." इत्यादि । तब यह सिद्ध हुआ कि "रमण" भी अर्थापत्ति प्रमाण से स्पष्ट प्रतीत होता है; क्योकि जो बात किसी दूसरी रीति से उपस्थित हो जाय, उसे शब्द का अर्थ नहीं माना जाता । पर यदि समझ लो कि "अर्थापत्ति' कोई पृथक् प्रमाण नहीं है, जैसा कि कई एक दर्शनकारों ने माना है, तो वहाँ जाने का फल "रमण' व्यंग्य हो सकता है, पर तथापि जो बात तुम चाहते हो, वह सिद्ध नही हो सकती। क्योंकि "स्तनों के ऊपरी भाग का चंदन हटना" आदि एवं नायक की "अधमता", ये जो वाच्य हैं, वे, तुम्हारे हिसाव से, केवल दूती के संभोग से ही सिद्ध हो सकते हैं, अन्य किसी प्रकार-अर्थात् बावड़ी मे नहाने आदि-से नहीं, इस कारण यह काव्य गुणीभूत व्यग्य हो जायगा; क्योंकि बेचारे व्यंग्य को ही उन वाच्य अर्थों को सिद्ध करना पड़ेगा, सो वह वाच्यों की अपेक्षा गौण हो जायगा।