पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/१४६

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अलंकार शास्त्र के आचार्य हुए हैं, उन सबने रस भाव आदि को असंलक्ष्यक्रमव्यंग्य माना है-अर्थात् इनके प्रवीत होने के पूर्व विभावादिकों की उपस्थिति आवश्यक है और उनकी अभिव्यक्ति के अनंतर ही रस भाव आदि की अमिव्यक्ति होती है; पर बीच के समय के अति सूक्ष्म होने के कारण उनका क्रम (पूर्वापरभाव) हमे लक्षित नहीं होता। यह एक नियत बात है, इससे विरुद्ध कभी नहीं होता। पंडितराज का सिद्धात है कि रस भाव आदि संलक्ष्यक्रमव्यंग्य भी होते हैं-अर्थात् उनके पूर्व विभाव आदि की पृथक् प्रतीति होकर, उसके अनंतर भी उनकी प्रतीति होती है। उदाहरण लीजिए-

तल्पगताऽपि च सुतनुः श्वासासङ्गनं या सेहे।
सम्पति सा हृदयगतं प्रियपाणिं मन्दमाक्षिपति॥

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सेज सुई हू सुतनु जो सांस परसि अकुलाय।
वह अब पिय-कर हिय धरयो हरुए रही उठाय॥

जो सुकुमारी नववधू, पलँग पर सोई हुई भी, श्वास के लगने मात्र से अङ्गों को सिकोड़ने लगती थी-वही इस समय (पति के परदेश जाने की पहली रात्रि मे) हृदय पर धरे हुए शंकायुक्त पति के हाथ को हटा रही है, पीछे अपनी जगह पहुँचा रही है; पर धीरे-धीरे।