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उत्तमोत्तम काव्य

"उत्तमोत्तम" काव्य उसे कहते है, जिसमें शब्द और अर्थ दोनों अपने को गौण (अप्रधान) बनाकर किसी चमत्कारजनक अर्थ को अभिव्यक्त करे—व्यंजनावृत्ति से समझावे।

इस लक्षण में "किसी चमत्कार-जनक अर्थ को व्यक्त करे।" इस कथन से यह सिद्ध हुआ—जिसमें व्यंग्य अत्यंत गूढ हो अथवा अत्यंत स्पष्ट हो, वह काव्य उत्तमोत्तम नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसे व्यंग्यों की चमत्कारजनकता नष्ट हो जाती है। यही बात जिसमें व्यंग्य सुंदर न हो, उसके विषय में भी समझो। अपरांग (अर्थात् किसी दूसरे अर्थ का अंग) और वाच्यसिद्धव्यंग (अर्थात् जिसके बिना वाच्य अर्थ सिद्ध ही न हो) व्यंग्य भी चमत्कारी होते है; अतः इस लक्षण से उनका भी ग्रहण न हो जाय, इस कारण, लक्षण में "अपने को गौण बनाकर" कहा गया है; जिसका यह अभिप्राय है कि शब्द और अर्थ (वाच्य) दोनों से व्यंग्य की प्रधानता होनी चाहिए, सो उन दोनों में नहीं होती, अतः वे भी उत्तमोत्तम काव्य नहीं हो सकते।