पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/१३५

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जाय। उस प्रतिभा के दो कारण है—एक तो, किसी देवता अथवा किसी महापुरुष की प्रसन्नता होने के कारण, किसी ऐसे भाग्य का उत्पन्न हो जाना कि जिससे काव्यधारा अविरत चलती रहे, और दूसरा—विलक्षण व्युत्पत्ति और काव्य बनाने के अभ्यास का होना। किंतु ये तीनों सम्मिलित रूप में कारण नहीं हैं; क्योंकि कई बालकों तथा अबोधों को भी केवल महापुरुष की कृपा से ही प्रतिभा उत्पन्न हो गई है (जैसे कि कवि कर्णपूर के विषय में किवदंती है)। आप कहेंगे कि वहाँ हम उस कवि के, पूर्वजन्म के, विलक्षण (जैसे दूसरों में नहीं होते) व्युत्पत्ति और काव्य करने का अभ्यास मान लेंगे। अर्थात् उसने पूर्वजन्म में इन बातों को सिद्ध कर लिया है, अब किसी महापुरुष की कृपा होते ही वे शक्तियाँ जग उठी। पर यों मानने में तीन दोष हैं—

१—गौरव अर्थात् जब उन दोनों के कारण न मानने पर भी केवल अदृष्ट (भाग्य) से काम चल सकता है, तो क्यों उन दोनों को उसके साथ लगाकर कारणों की संख्या बढ़ाई जाय।

२—मानाभाव अर्थात् इसमें कोई प्रमाण नहीं कि, ऐसे स्थान पर भी, इन तीनों को सम्मिलित रूप में ही प्रतिभा का कारण मानना चाहिए।

३—कार्य का बिना तीनों के कारण मानने पर भी सिद्ध हो जाना।