पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/१३१

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भी प्रयोग किया जाता है। यदि आप कहे कि वहाँ आप लक्षणा से काम चला लीजिए—समझ लीजिए कि काव्य—जैसा पदग्रथन उस (दोषयुक्त) में भी है, इस कारण गौणी लक्षणा के द्वारा उसे भी काव्य समझ लेना चाहिए; तो यह भी अनुचित है क्योकि जब तक कोई मुख्यार्थ का बाधक कारण उपस्थित न हो, तब तक लाक्षणिक कहना ही नहीं बन सकता, लक्षणा तभी होती है, जब कि मुख्यार्थ का बाधा, मुख्यार्थ से संबंध और रूढ़ि अथवा प्रयोजन ये तीनों निमित्त हों

हाँ, एक दूसरी युक्ति और है। आप कह सकते हैं कि जैसे एक पेड़ की जड़ पर पक्षी बैठा है, पर डाली पर नहीं, तब उस पेड़ में एक स्थान पर (जड़ में) पक्षी का संयोग है और दूसरे स्थान पर (शाखा में) संयोग का अभाव! तथापि सर्वत्र संयोग रहित होने पर भी, एक स्थान पर संयोग होने के कारण, उस वृक्ष का संयोगी कह सकते हैं। ठीक इसी तरह अन्य सब स्थानों पर दोष रहित होने के कारण वह काव्य कहला सकता है और एक स्थान पर दोष युक्त होने के कारण दोषी भी। सो यह भी ठीक नहीं; क्योंकि जैसे जड़ पर पक्षी को बैठा देखकर, सब मनुष्यों को, यह प्रतीति होती है—कि इस वृक्ष की जड़ में पक्षी का संयोग है; पर शाखा में नहीं,


लक्षणा का विशेष विवरण द्वितीय भाग में होगा अतः हमने यहाँ विशेष प्रपंच नहीं किया है।